नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 28 साल पुराने एक मामले में फैसला सुनाते हुए चिकित्सा क्षेत्र के लिए अहम निर्देश जारी किए हैं। अदालत ने शुक्रवार को एक फैसले में कहा कि किसी डॉक्टर को तभी लापरवाही के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, जब यह साबित हो कि उस डॉक्टर में योग्यता या कौशल की कमी थी। जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस पंकज मिथल की बेंच ने साफ किया कि मेडिकल प्रोफेशनल के खिलाफ लापरवाही का मामला तभी बनता है जब वह उचित देखभाल या इलाज देने में विफल रहता है।
मामले का पूरा विवरण
मामला 1996 का है जब एक शिकायतकर्ता ने अपने बेटे की जन्मजात आंख की समस्या के इलाज के लिए चंडीगढ़ स्थित पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (PGIMER) के डॉक्टर नीरज सूद से संपर्क किया। डॉक्टर ने बच्चे का ऑपरेशन किया, जिसमें बाईं पलक को थोड़ा ऊपर उठाकर दाहिनी आंख के बराबर करना था। लेकिन, शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि डॉक्टर ने सर्जरी में लापरवाही बरती, जिससे बच्चे की हालत बिगड़ गई।
इस मामले में, पहले स्टेट कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन (SCDRC) ने लापरवाही के आरोपों को खारिज कर दिया। इसके बाद शिकायतकर्ता ने नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन (NCDRC) में शिकायत की, जिसने डॉक्टर और अस्पताल को दोषी मानते हुए 3 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने एनसीडीआरसी के फैसले को पलटते हुए डॉक्टर को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया और कहा कि जब तक यह साबित न हो जाए कि डॉक्टर ने अपने कर्तव्यों में कौशल और सावधानी नहीं बरती, तब तक उसे लापरवाह नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने कहा कि चिकित्सा क्षेत्र में कठिनाई और जटिलता को समझते हुए डॉक्टर के कार्य का आकलन करना आवश्यक है।